Tuesday, March 23, 2010

वो हवा जो ताज़ा नमी लिए बहती थी
आज वो मातम के आँसू बन गये
वो परिंदे जो मोहब्बत के नग्मे गाते थे
आज ज़माने के मजरूह बन गये
क्यूँ
क्यूंकी कुछ गुलशन थे
जो लाशों का बाज़ार बन गये
और फ़ूल जल के घूबार बन गये

वो आँसू जो बहे तो सही मगर
आँखें ना नम कर सकीं
वो चोटें जो लगी तो सही मगर
तड़पन ना कम कर सकीं
क्यूँ
क्यूंकी कुछ चेहरे थे
जो खो गये किसी बवंडर में
और घुल गये लहू के समंदर में